गुस्सा आना एक साधारण भावना है जो व्यक्ति की मनोदशा को दर्शाता
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बच्चो को गुस्सा आना भी एक प्रकार का भावना है जो उनकी परेशानी को दर्शाने का प्रतिक होता है। बच्चो को कीतना गुस्सा अत है ,कैसे अता है और उसके क्या कारण है। इसे जानना की बच्चे क्यों गुस्सा कर रहे है। उनके माता- पिता को जरुरी हैं। गुस्सा आना एक साधारण प्रक्रिया है लेकिन जब ये अधिक हो जाये या बच्चा चिरचीरा रहे बार-बार गुस्सा करता हो साधारण सी बात पर ज़िद करने लगे तो ये बच्चे के लिए हनिकारक सकता है।
बच्चो को गुस्सा आने के बहुत सारे कारण हो सकते है जिसको जानने के लिए बच्चा का बिकास की प्रक्रीया को जानना होगा।
बाल्यावस्था
बाल्यावस्था जिसकी अवधी 2 वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक होति है इस अवस्था में बालक में बहुत सारे परिवर्तन होते है। इसी अवधि में भाषा का बिकास, बालक द्व्रारा सीखे गए कैशलो और खेल का बिकास होता है। बालक स्कूल जाना प्रारम्भ इसी अवधी में करता है।
सावेगिक बिकास
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में तीव्र संवेग होते हैं। जिसमे बहुधा सांवेगिक विस्फोट भी होते रहते हैं। इसमें बहुत जल्दी गुस्सा आना , तीव्र भय या ईर्ष्या होते हैं। तथा इनका कारण लम्बे समय तक चलने वाले और थका देने वाले खेल या बहुत कम भोजन करना हो सकता है
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बच्चो के लिए बहुत आवश्यक होता है की उनके माता-पिता के साथ उनका सम्बन्ध अच्छा हो। माता-पिता के साथ ख़राब सम्बन्ध बच्चे के ऊपर विध्वंशकारी प्रभाव परता है। क्यूंकि बच्चे माता-पिता पर बहुत अधिक मात्रा में आश्रित होते हैं। इसके अतिरिक्त बालक की सुरक्षा भी माता-पिता के इर्द -गिर्द ही रहती है।
इसीलिए माता-पिता के साथ ख़राब सम्बन्ध या उनकी अनुपस्थिति बालक व्यक्तित्व के विकाश को भी प्रभावित करता है।
व्यक्तित्व विकाश
बालक के व्यक्तित्व का विकास परिवार के अंदर ही होती हैं। क्यूंकि बच्चे का सामाजिक संसार उसके माता-पिता ,भाई,बहन तथा अन्य सम्बन्धी जो उनके साथ रह रहे हैं। और वे बच्चे के विषय में जैसा सोचते हैं बच्चा उसे ही देखता है। तथा अपने आत्म के रूप में स्वीकार करता है। मित्र समूह का भी प्रभाव आत्म सम्प्रत्यय पर होता है, जो बच्चे के प्रति उनकी मनोवृति से प्रकट होता है । तथा वह बच्चे पर परिवार के प्रभाव को और मजबूत बना सकता है। तथा स्थापित कर सकता है या उनका विरोध कर उसे ध्वस्थ कर सकता है।
बाल्यावस्था में क्रोध और संकट के कारण
एक पूर्व विद्यालयी बालक जो अक्सर नकारात्मक या दुःखदायी संवेगों जैसे , क्रोध आदि का अनुभव करता रहता है उसमे नकारात्मक प्रवृति का विकास होने का सांवेगिक संकट रहता है। बाल्यावस्था के प्रारंभ में ही बालक को अपने पर्यावरण में स्वयं तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के बीच संवेंगिक जुड़ाव स्थापित करने सीखना आवश्यक होता है। बालक को माता के साथ एक स्थायी एवं स्नेहपूर्ण सम्बन्ध की आवश्यकता होती हैं जो अन्य संबंधों में विस्तारित होतीं हैं। ऐसे बहुत से कारण और परिश्थितियां होतीं हैं जो बालक के सामाजिक समायोजन की मात्रा को प्रभावित करती हैं।
1. यदि बालक का व्यवहार या भाषा लोकप्रिय नहीं है तो वह अकेला हो जाता है तथा समूह परिस्थितियों में सिखने का अवसर कम है।
2. बच्चे पर अपने लिंग के अनुरूप खेलों में भाग लेने का शक्तिशाली दबाव उसे परेशान कर देता है तथा वह तिरस्कृत हो सकता है।
3. वे बालक जो अपनी आयु , लिंग या जाती के कारण दु:खदायी सामाजिक परिस्थितियों का सामना करते हैं वे स्वयं के बचाव में सभी सामाजिक संबंधों से दूर हो जाते हैं।
4. वे बच्चे जो अधिकांशतः पालतू या काल्पनिक साथियों के साथ खेलते हैं वे प्रभावशाली प्रवृति के होते हैं। इसका परिणाम सामाजिक कुष्मायोजन होते हैं।
5. ऐसे बच्चे जिनके सदैव बहुत से खेल के साथी रहे हैं वे अकेले किस प्रकार परिश्थितियों को संभाला जाता है , नहीं सिख पाते हैं और इस प्रकार से बिलकुल अकेले हो जाते हैं।
बच्चों में नैतिकता का विकाश कैसे करें
माता-पिता को बच्चे को निरंतर गलत से सही की ओर ले जाने वाली शिक्षा देनी चाहिए।अगर माता-पिता बच्चे के किसी बात को गलता बताते हैं और अगले ही दिन उसी बात को सही मानकर अनदेखी कर देते हैं तो बच्चा भ्रमित हो जाता हैं।
--अगर बच्चे के गलतियों के लिए उसके माता-पिता उसे दण्डित करते हैं और उसी बात को उसके मित्र समूह सराहना करते हैं तो गलत व्यवहारों के प्रति बालक में सकारात्मक सोंच बन जाती है इसीलिए केवल गलत व्यवहार ही नहीं अपितु उनके प्रति अभिवृतियों की जांच की भी आवश्यकता होती हैं।
माता-पिता को क्या करना चाहिए
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माता-पिता द्वारा बच्चे को निरंतर एवं स्थिर रूप से सही और गलत की शिक्षा देनी चाहिए।
बच्चे के किसी भी भूल को अनुमति देना , स्वीकारना , या दयापूर्वक देखना नहीं चाहिए। यह गलत व्यवहार छोड़ने के लिए प्रबलन का कार्य करता है।
बच्चे को अत्यधिक दंड देना बच्चे को विनाश की ओर ले जाते हैं।
अच्छे व्यवहार के लिए प्रसंसा , पुरस्कार एवं पारितोषित और कभी-कभी स्थिर दंड बच्चे में नैतिकता विकसित करती है।
बच्चे के पालन-पोषण में प्रेम एवं स्वीकृति पर आधारित होना चाहिए।
बालक को प्रसन्नता से रखें
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--एक बालक जो प्रसन्न रहता है। वो एक पूर्ण रूप से व्यक्ति के रूप में विकसित होता है। बच्चे के प्रसन्ता के लिए माता -पिता को बच्चे की स्वकृति प्रदान करने का उत्तरदायित्व ग्रहण करना चाहिए।
माता -पिता द्वारा बच्चे को उसके रंग रूप ,लिंग उसके शक्तियो या कमियों के बिना ही स्वीकार करना चाहिए। बच्चे को अपने बिच भरपुर स्वागत करना चाहिए तथा बच्चे को इस बात का एहसास करना चाहिए की वे उसे चाहते हैं।--माता -पिता द्रारा बच्चे की मूल आवस्यक्ताओं की पूर्ति की जनि चाहिए। उचित भोजन एवं पोषाहार से बच्चे को उनकी स्वीकृति एवं आवस्यकता अनुभव करने में सहायता प्रदान करते हैं। बच्चे को स्वच्छ रखने तथा बिजली , आग ,दुर्घटनाओ आदि खतरों से उनकी रक्षा हेतु सुरक्षा हेतु सुरक्षित पर्यावरण प्रदान करने से बालक के मष्तिस्क में स्वीकृति का संचार होगा।
--माता -पिता को खाली समय निकाल कर कुछ समय बच्चो के साथ बिताना चाहिए।बच्चो की गतिविधियों में सम्लित होना तथा उन्हें उपलब्ध वृद्धि एवं विकाश के अवसरों में वृद्धि करना बच्चे को स्वीकृति देने के तरीके हैं।
--माता -पिता को बची से आंख मिलाकर बात करना चाहिए। माता -पिता से बात करते समय बचे न केवल भाषा सीखते है बल्कि वे मानसिक रूप से सुरक्षित एवं स्वीकृति का अनुभव करते हैं।
--आयु के अनुसार तथा बच्चे के रुचियों के अनुरूपउत्तरदायित्वों को बच्चे को सौंपा जाना चाहिए, पौधों को सींचने या घर की सफाई करने में बच्चे की सहायता लेने से बच्चे की स्वीकृति का अनुभव होता है तथा वह परिवार के समूह का अंग होने का अनुभव करता है
--चुम्बन लेना , गोद में लेना आदि स्नेह के प्रदर्सन द्वारा बच्चे में स्वीकृति के साथ साथ जुड़ाव का अनुभव करने में सहायता देते है।
--माता -पिता को गलत से सही , अस्वीकृति से स्वीकृत व्यव्हार की शिक्षा देने में समय लेना चाहिए। इस पुरे प्रक्रिया को बच्चे को अनुशासित करना कहा जाता है। अनुशासन के परिपक्ष्य में ही माता -पिता को बच्चे के समक्ष सही व्यव्हार की व्याख्या करनी चाहिए। इसके साथ ही माता -पिता स्वयं दोनों के बिच तथा दो समय के बिच स्थिरता होनी चाहिए।
-- जल्दी -जल्दी दिया जाने वाला दण्ड प्रभावी भी नहीं होता है तथा बच्चे को समझ में भी नहीं आता। कोई भी दण्ड अंतिम आश्रय होना चाहिए। दण्ड की मात्रा हमेशा मूल के अनुपातिक होना चाहिए। बच्चे को यह ज्ञात होना चाहिए की उसे क्यों दण्डित किया जा रहा है।
Good knowledge
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